डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर को न केवल भारत बल्कि दुनिया के सबसे ज्यादा पढ़े लिखे शख्सियतों में से एक माना जाता है। हम इस लेख के माध्यम से उच्च शिक्षित डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की संपूर्ण शैक्षिक यात्रा के बारे में जानने जा रहे हैं।
डॉ. बाबासाहब आंबेडकर की शिक्षा
आधुनिक भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने तीन महाद्वीपों (एशिया, उत्तरी अमेरिका और यूरोप) शिक्षा प्राप्त की हैं। उन्हें दुनिया के चुनिंदा सबसे ज्यादा पढ़े लिखे शख्सियतों में से एक माना गया है।
ज्ञानसूर्य डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर को शिक्षा ग्रहण करना बहुत चुनौतीपूर्ण रहा है। लेकिन उनका वह संघर्ष आज करोड़ों लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना है। बाबासाहेब शिक्षा को सर्वोच्च मानते थे और उन्होंने स्वयं को भी आजीवन विद्यार्थी ही माना।
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर अपने छात्र जीवन के दौरान प्रतिदिन 18 घंटे पढ़ाई करते थे। वह विदेश से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट (पीएचडी) की डिग्री प्राप्त करने वाले पहले भारतीय थे। साथ ही वह विदेश से दो डॉक्टरेट (पीएचडी और डीएससी) प्राप्त करने वाले पहले दक्षिण एशियाई भी थे। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर को भारतीय इतिहास का सबसे बुद्धिमान और सबसे ज्यादा पढ़ा लिखा व्यक्ति भी माना जाता है।
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने नवंबर 1896 से नवंबर 1923 तक 27 वर्षों की अवधि में सतारा, मुंबई, न्यूयॉर्क, लंदन के शैक्षणिक संस्थानों से पढ़ाई की। इस दौरान उन्होंने बीए, दो बार एमए, पीएचडी, एमएससी, बार-एट-लॉ और डीएससी ये डिग्रियां हासिल कीं। 1950 के दशक में, उन्हें एल.एल.डी. और डी.लिट. दो मानद उपाधियाँ भी प्रदान की गईं।
दुनिया के सबसे उच्च शिक्षित लोगों में डॉ. आंबेडकर का नाम लिया जाता है। इसके अलावा वह भारत के प्रख्यात शिक्षाविद् भी थे और उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। ऐसे में शिक्षा पर डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के विचार महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
पृष्ठभूमि
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की शैक्षिक यात्रा को जानने से पहले उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि और उनके प्रारंभिक जीवन को जानना आवश्यक है।
यद्यपि डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर महाराष्ट्रीयन थे, उनका जन्म (मध्य प्रदेश) तथा मृत्यु (दिल्ली) महाराष्ट्र में नहीं हुई। बाबासाहब का पैतृक गांव रत्नागिरी जिले का आंबडवे था। बाबासाहब की प्राथमिक, माध्यमिक और कॉलेज की शिक्षा महाराष्ट्र के गाँवों और शहरों में हुई।
भीमराव आंबेडकर के पूर्वज लंबे समय से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्यरत रहे थे। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के पिता का नाम रामजी और दादा का नाम मालोजीराव सकपाल था। मालोजी इंडियन ब्रिटिश सेना में सिपाही के रूप में भर्ती हुए थे। मालोजी के चार बच्चे थे जिनमें तीन बेटे और एक बेटी थी। दो बच्चों के बाद मीराबाई तीसरी थीं और 1848 के आसपास पैदा हुए रामजी, मालोजी की चौथी संतान थे। मालोजी का पहला बेटा संन्यासी था, दूसरा बेटा सिपाही था और रामजी का तीसरा बेटा भी सिपाही था।
1866 के आसपास, 18 वर्ष की आयु में, रामजी ब्रिटिश सेना के 106 सैपर्स एंड माइनर्स में एक सैनिक के रूप में भर्ती हुए। जब वे 19 वर्ष के थे तब उनका विवाह 13 वर्षीय भीमाबाई से हुआ। बाद में वे सैनिकी स्कूल यानि ‘नॉर्मल स्कूल’ में शिक्षक बन गये। अंतिम चरण में उन्हें सुभदार के पद पर पदोन्नत भी किया गया। रामजी ने मराठी और अंग्रेजी में भी औपचारिक शिक्षा प्राप्त की।
रामजी सकपाल की पलटन 1888 में मध्य प्रदेश के महू स्थित सैन्य अड्डे पर पहुंची। यहां सुभेदार रामजी को नार्मल स्कूल के प्रधानाचार्य का पद मिला। इस अवधि के दौरान, बाबासाहेब आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को महू गाँव में रामजी और भीमाबाई के यहाँ हुआ था।
1891 तक रामजी और भीमाबाई के चौदह बच्चे थे। उनमें से चार बेटियां (गंगा, रमा, मंजुला और तुलसा) और तीन बेटें (बलराम, आनंदराव और भीमराव) ही जीवित बचे। भीमराव (भीवा) उनकी सबसे छोटी और चौदहवीं संतान थे, जिन्हें आज ‘बाबासाहेब’ के नाम से जाना जाता है।
बचपन में बाबासाहब का नाम भीवा रखा गया, बाद में उनके भीम, भीम और भीमराव नाम भी प्रचलन में आये। आंबेडकर का परिवार ‘महार’ अछूत जाति से सम्बंधित था और महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के ‘आंबडवे‘ गाँव का रहने वाला था। अपनी जाति के कारण बालक भीम को सामाजिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा था। विद्यालयी पढ़ाई में सक्षम होने के बावजूद छात्र भीमराव को छुआछूत के कारण अनेक प्रकार की कठनाइयों का सामना करना पड़ता था। अछूत होने के कारण उनके साथ हमेशा सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक रूप से भेदभाव किया जाता था।
1894 में, सूबेदार रामजी सकपाल ब्रिटिश सेना में हेडमास्टर के रूप में अपनी नौकरी से सेवानिवृत्त हो गए और अपने परिवार के साथ महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में अपने पैतृक गांव आंबडवे के पास एक गांव ‘दापोली’ में बस गए। चूंकि भीमराव छोटे थे, इसलिए उन्हें कैंप दापोली के स्कूल में दाखिला नहीं दिया गया और भीमराव को घर पर ही अक्षरों को पहचान सिखाई गई। बाबासाहेब के पिता ही उनके पहले गुरु या शिक्षक थे, जिन्होंने उन्हें पढ़ाया।
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प्राथमिक शिक्षा
1896 में, रामजी अपने परिवार के साथ दापोली छोड़कर सतारा चले गये। इस समय भीमराव पाँच वर्ष के थे। नवंबर 1896 में पिता रामजी ने भीमराव का नाम सतारा के कैंप स्कूल, जो कि एक मराठी स्कूल था, में दाखिला करा दिया। इस स्कूल में वे मराठी कक्षा पहली से कक्षा चौथी तर पढ़े।
वर्ष 1896 में ही रामजी ने कबीर पंथ की दीक्षा ली। अपने स्थानांतरण के बाद थोड़े ही समय में (1896 में) डॉ. बाबासाहब आंबेडकर की माँ भीमाबाई का निधन हो गया। 1898 में रामजी ने जीजाबाई नामक विधवा से विवाह किया।
सतारा के कैंप स्कूल में भीमराव द्वारा अपनी मराठी शिक्षा पूरी करने के बाद, 7 नवम्बर 1900 को रामजी सकपाल ने सातारा की गवर्न्मेण्ट हाइस्कूल (अब प्रतापसिंह हाई स्कूल) में अंग्रेजी की पहली कक्षा में अपने बेटे भीमराव का नाम “भिवा रामजी आंबडवेकर” दर्ज कराया। इसी दिन से उनके शैक्षिक जीवन का आरम्भ हुआ था, इसलिए 2017 से 7 नवंबर को महाराष्ट्र में विद्यार्थी दिवस रूप में मनाया जाता हैं।
उनके बचपन का नाम ‘भिवा’ था। आंबेडकर का मूल उपनाम सकपाल की बजाय आंबडवेकर लिखवाया था, जो कि उनके आंबडवे गाँव से संबंधित था। क्योंकी महाराष्ट्र के कोकण प्रांत के लोग अपना उपनाम यानि सरनेम गाँव के नाम से रखते थे, अतः आंबेडकर के आंबडवे गाँव से आंबडवेकर उपनाम स्कूल में दर्ज करवाया गया।
बाद में एक देवरुखे ब्राह्मण शिक्षक कृष्णा केशव आंबेडकर जो उनसे विशेष स्नेह रखते थे, ने उनके नाम से ‘आंबडवेकर’ हटाकर अपना सरल ‘आंबेडकर’ उपनाम जोड़ दिया। “भिवा रामजी आंबेडकर” तब से आज तक वे आंबेडकर नाम से जाने जाते हैं। उस समय उन्हें ‘भिवा’ कहकर बुलाया जाता था। स्कूल में उस समय ‘भिवा रामजी आंबेडकर‘ यह उनका नाम उपस्थिति पंजिका में क्रमांक – 1914 पर अंकित था। नवंबर 1904 में वे अंग्रेजी चौथी कक्षा की परीक्षा उत्तीर्ण हुए। रामजी को बेहतर अंग्रेजी आती थी, इसलिए बाबासाहेब बचपन से ही अंग्रेजी समजते और बोलते थे।
अन्य जातियों के विरोध के कारण, रामजी ने अपने सैन्य पद का उपयोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाने के लिए किया। स्कूल में दाखिला मिल भी गया तो भीमराव को कक्षा में अन्य जाति के छात्रों से अलग बैठना पड़ता था और शिक्षकों से भी मदद नहीं मिलती थी। कई शिक्षकों ने उनके साथ तिरस्कारपूर्ण व्यवहार किया। उन्हें कक्षा में बैठने की अनुमति नहीं थी। अक्सर उन्हें कक्षा के बाहर बैठकर पढ़ाई करनी पड़ती थी।
जब उन्हें प्यास लगती थी, तो उन्हें स्कूल के पानी के कटोरे या ग्लास को छूने की अनुमति नहीं थी। तब कोई ऊंची जाति का व्यक्ति ऊंचाई से उनकी अंजलि पर पानी डालता था, तभी वे पानी पी पाते थे। बालक आंबेडकर के लिए यह काम आमतौर पर स्कूल के चपरासी द्वारा किया जाता था। परन्तु यदि सिपाही अनुपस्थित हो, तो उन्हें सारा दिन बिना पानी के रहना पड़ता था। उन्होंने अपने आत्मकथा में इस घटना का वर्णन किया है।
नवंबर 1904 में भीमराव अंग्रेजी चौथी कक्षा की परीक्षा उत्तीर्ण होने के बाद, दिसंबर 1904 में रामजी सकपाल अपने परिवार के साथ मुंबई चले गये और लोअर पराल इलाके में डबक चाली में रहने लगे। भीमराव ने मुंबई के सरकारी स्कूल एल्फिन्स्टन हाई स्कूल में दाखिला लिया। वह एलफिंस्टन हाई स्कूल में दाखिला लेने वाले पहले अछूत छात्र थे। यहाँ भी उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ा।
स्कूल में पढ़ाई के दौरान ही 1906 में 15 वर्षीय भीमराव की शादी दापोली के भीकू वलंगकर की 9 वर्षीय बेटी रमाबाई से हो गई। दिसंबर 1907 में भीमराव ने एल्फिंस्टन हाई स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा सफलतापूर्वक उत्तीर्ण की। क्योंकि यह अछूतों में असामान्य बात थी, इसलिए जनवरी 1908 में, भीमराव की इस सफलता (मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण) को अछूतों के बीच सार्वजनिक समारोह के रूप में मनाया गया।
कृष्णाजी अर्जुन केलुस्कर गुरुजी की अध्यक्षता में यह बैठक हुई और सभी ने भीवा रामजी आंबेडकर की प्रशंसा की। उनके परिवार के मित्र एवं लेखक कृष्णाजी अर्जुन केलुस्कर (दादा केलुस्कर) गुरुजी द्वारा स्वलिखित ‘बुद्ध की जीवनी’ उन्हें भेंट दी गयी। इसे पढकर बाबासाहेब ने पहली बार गौतम बुद्ध व बौद्ध धर्म को जाना एवं उनकी शिक्षा से प्रभावित हुए। वे पहली बार बुद्ध धम्म के प्रति आकर्षित हो गये।
एलफिंस्टन कॉलेज – मुंबई विश्वविद्यालय
आर्थिक तंगी के कारण रामजी सकपाल बेटे भीमराव को मैट्रिक के आगे की शिक्षा देने की स्थिति में नहीं थे। इसलिए केलुस्कर गुरुजी ने मुंबई में ही भीमराव की मुलाकात महाराज सयाजीराव गायकवाड़ से कराई। भीमराव की बुद्धिमत्ता को देखकर सयाजीराव गायकवाड़ महाराज ने उन्हें कॉलेज में पढ़ने के लिए 25 रुपये प्रति माह की छात्रवृत्ति दी। 3 जनवरी, 1908 को भीमराव ने एल्फिंस्टन कॉलेज में प्रीवियस की कक्षा में प्रवेश लिया। भीमराव यहाँ नियमित अध्ययन करते थे।
एल्फिंस्टन कॉलेज में अंग्रेजी के प्रोफेसर मुलर और फारसी के प्रोफेसर केबी ईरानी आंबेडकर के शिक्षक थे। भीमराव ने अंग्रेजी और फारसी दोनों विषयों में 75 प्रतिशत से अधिक अंक प्राप्त करते थे। इसी अवधि के दौरान 12 जनवरी 1912 (12-12-12) को उनके पहले पुत्र यशवंत का जन्म हुआ। भीमराव आंबेडकर ने जनवरी 1913 में मुख्य विषयों के रूप में राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्र के साथ बीए की परीक्षा उत्तीर्ण की। वह बॉम्बे विश्वविद्यालय से बीए की डिग्री के प्राप्त करने वाले पहले अछूत छात्र थे।
महाराज सयाजीराव गायकवाड़ के वित्तीय सहयोग से मुक्त होने के लिए, आंबेडकर 23 जनवरी, 1913 को बड़ौदा संस्थान में नौकरी करने लगे। लेकिन नौवें दिन ही उन्हें टेलीग्राम मिला कि उनके पिता बहुत बीमार हैं और दो दिन बाद वह मुंबई वापस आ गये। भीमराव अपने पिता रामजी से मिले और 3 फरवरी 1913 को उनके पिता की मृत्यु हो गई। इसके बाद वह दोबारा बड़ौदा में नौकरी के लिए समय पर उपस्थित नहीं हो सके। इसी बीच उन्हें आगे की स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए अमेरिका जाने का अवसर मिला।
कोलंबिया विश्वविद्यालय, अमेरिका
बीए की डिग्री पास करने के बाद भीमराव रामजी आंबेडकर के पास दो विकल्प थे: या तो नौकरी करके घर की वित्तीय स्थिति में सुधार करना, या पोस्ट-ग्रेजुएशन करके अपनी शैक्षिक योग्यता को और बढ़ाना। अपने पिता की मृत्यु के चार महीने बाद, वह बड़ौदा के राजा से 11.5 पाउंड प्रति माह की छात्रवृत्ति पर अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा के लिए चले गये।
महाराज सयाजीराव गायकवाड़ बड़ौदा संस्थान की ओर से कुछ छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका भेजने की सोच रहे थे। उसी समय, बाबासाहेब आंबेडकर ने महाराज से मुलाकात की और उन्हें बड़ौदा में उनके साथ हो रहे सामाजिक अन्याय के बारे में बताया; महाराज ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी लेकिन कहा कि वह भीमराव आंबेडकर को उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति पर अमेरिका भेजना पसंद करेंगे।
4 अप्रैल, 1913 को बड़ौदा राज्य के अधिकारियों ने विदेश में पढ़ने के लिए चार छात्रों का चयन किया, जिनमें आंबेडकर भी एक थे। उनमें से प्रत्येक को साढ़े ग्यारह पाउंड प्रति माह की छात्रवृत्ति दी गई। इसके लिए उन्हें एक कॉन्ट्रैक्ट लिखना पड़ा. त्रिभुवन जे व्यास और अन्ताजी गोपाल जोशी ने 18 अप्रैल, 1913 को गवाह के रूप में इस समझौते पर हस्ताक्षर किये। इस समझौते के अनुसार छात्रवृत्ति की अवधि 15 जून 1913 से 14 जून 1916 तक कुल तीन वर्ष थी।
उसके बाद डाॅ. बाबासाहेब आंबेडकर अमेरिका जाने के लिए 21 जुलाई, 1913 को दोपहर 12 बजे बॉम्बे बंदरगाह से एसएस एंकोना नाव पर सवार होकर अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर पहुंचे। उन्होंने जुलाई 1913 से जून 1916 तक तीन वर्षों के लिए इसी शहर के कोलंबिया विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान (Political Science) विभाग में दाखिला लिया।
भीमराव ने अपने प्रमुख विषय के रूप में ‘अर्थशास्त्र’ को चुना, उसके बाद समाजशास्त्र, इतिहास, राजनीति विज्ञान, मानव विज्ञान और दर्शनशास्त्र को चुना। यहां उन्होंने अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र का गहन अध्ययन किया और विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र के प्रोफेसर एडविन आरके सेलिगमैन के पसंदीदा छात्र बन गए।
इसी बीच 1914 में, कोलंबिया विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में लाला लाजपतराय ने व्यक्तिगत रूप से अपना परिचय भीमराव से कराया। लाजपतराय को बताया गया कि भीमराव आंबेडकर लाइब्रेरी में सबसे पहले प्रवेश करते थे और सबसे बाद में निकलते थे। तदनुसार, इन दोनों महान भारतीयों की मुलाकात पुस्तकालय में हुई।
जब लाजपतराय और बाबासाहेब आंबेडकर के बीच अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र से संबंधित विषयों पर बातचीत हो रही थी, तभी प्रोफेसर एडविन सेलिगमैन वहां आये और उन्होंने भी बातचीत में भाग लिया। प्रो सेलिगमैन, जो लाजपतराय के मित्र थे, आंबेडकर के राजनीति विज्ञान और समाजशास्त्र के गहन ज्ञान को जानते थे। लाजपतराय ने आंबेडकर के ज्ञान की प्रशंसा की। उसी समय सेलिगमैन ने लाजपतराय को आंबेडकर के बारे में बताया कि “कोलंबिया विश्वविद्यालय में, भीमराव आंबेडकर न केवल भारतीय छात्रों में बल्कि अमेरिकी छात्रों में भी सबसे बुद्धिमान हैं।” डॉ आंबेडकर को लाला लाजपतराय राष्ट्रीय नेताओं में अपने बहुत नजदीक प्रतीत होते थे।
भीमराव आंबेडकर ने अपनी एमए की डिग्री के लिए एन्शंट इंडियन कॉमर्स (प्राचीन भारतीय वाणिज्य) नामक थीसिस लिखी और इसे 15 मई 1915 को कोलंबिया विश्वविद्यालय में जमा कर दिया। इस थीसिस के आधार पर 2 जून, 1915 को विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें एम.ए. की उपाधि प्रदान की गयी। यह थीसिस बाद में अॅडमिशन अँड फायनान्स ऑफ इस्ट इंडिया (ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रवेश और वित्त) के नाम से प्रकाशित हुई।
इसके बाद आंबेडकर ने अपनी पीएचडी डिग्री के लिए द नेशनल डिविडेंड ऑफ इंडिया: ए हिस्टोरिकल एंड एनालिटिकल स्टडी (भारत का राष्ट्रीय लाभांश: एक ऐतिहासिक और विश्लेषणात्मक अध्ययन) शीर्षक से एक थीसिस लिखना शुरू किया। 1917 में, विश्वविद्यालय ने उनकी थीसिस को स्वीकार कर लिया और उन्हें पीएचडी (डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी) की उपाधि से सम्मानित किया।
हालाँकि, एक शर्त यह भी जोड़ी गई कि जब इस थीसिस की कुछ प्रतियां मुद्रित की जाएंगी और विश्वविद्यालय में जमा की जाएंगी, तभी आंबेडकर को विधिवत पीएचडी की डिग्री प्रदान की जाएगी। हालाँकि, 1917 में विश्वविद्यालय ने थीसिस की स्वीकृति के कारण आंबेडकर को अपने नाम के साथ ‘डॉक्टर‘ (डॉ.) शब्द जोड़ने की अनुमति दे दी।
आंबेडकर ने अपनी पीएचडी थीसिस द नेशनल डिविडेंड ऑफ इंडिया: ए हिस्टोरिकल एंड एनालिटिकल स्टडी में इस बात पर प्रकाश डाला कि कैसे ब्रिटिश साम्राज्यवाद की भारतीय सरकार हजारों मील दूर ब्रिटिश संसद में एक सचिव (भारत के मंत्री) के माध्यम से संचालित की जाती थी, और इसके परिणामस्वरूप सरकार की फिजूलखर्ची और गैरजिम्मेदारी भारतीय लोगों को कैसे निचोड़ रही थी।
साथ ही सबसे पहले बजट कब आया, प्रांतीय अर्थव्यवस्था कब शुरू हुई, अर्थव्यवस्था का विस्तार कैसे हुआ, इसका भी विवेचन थीसिस में किया गया। इसके आलावा, विश्व में विभिन्न देशों के नागरिकों को लगने वाले अनेक प्रकार के करों का उल्लेख करते हुए ब्रिटिश साम्राज्यवादी केन्द्रीय सरकार के करों, स्थानीय स्वशासन करों तथा प्रान्तीय सरकारी करों का तत्कालीन अर्थव्यवस्था की दृष्टि से परीक्षण किया गया।
आठ साल बाद, 1925 में, आंबेडकर की पीएचडी थीसिस को ब्रिटिश भारत में प्रांतीय अर्थव्यवस्था का विकास शीर्षक के तहत लंदन के पीएस किंग एंड कंपनी द्वारा पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया था। भीमराव आंबेडकर ने थीसिस की कुछ प्रतियां कोलंबिया विश्वविद्यालय को सौंपी, जिसके बाद आंबेडकर को 8 जून 1927 को विधिवत पीएचडी की डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया।
पीएचडी डिग्री के लिए आंबेडकर के मार्गदर्शक प्रोफेसर सेलिगमैन ने इस पुस्तक की प्रस्तावना लिखी। कोलंबिया विश्वविद्यालय में रहने के बाद भी आंबेडकर ने कई वर्षों तक सेलिगमैन के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए रखा। डॉ आंबेडकर ने अपनी पुस्तक बड़ौदा के महाराज सयाजीराव गायकवाड़ को कृतज्ञतापूर्वक अर्पण की।
9 मई, 1916 को कोलंबिया विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर डॉ. ए.ए. गोल्डनवाइज़र द्वारा मानवविज्ञान पर आयोजित एक सेमिनार में आंबेडकर ने कास्ट्स इन इंडिया : देअर मेकनिझम, जेनेसिस अँड डेव्हलपमेंट (भारत में जातियाँ: उनकी व्यवस्था, उत्पत्ति और विकास) शीर्षक से एक नया पेपर पढ़ा। शास्त्रीय व्याख्या वाला यह शोध पत्र मई 1917 में इंडियन एंटीक्वेरी नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। बाद में वही शोधपत्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ। यह डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहली पुस्तक थी।
कोलंबिया विश्वविद्यालय में, अम्बेडकर ने मशहूर अमेरिकी दार्शनिक, शिक्षाशास्त्री और मनोवैज्ञानिक जॉन डेवी के अधीन अध्ययन किया, जिन्होंने समानता और सामाजिक न्याय के बारे में उनके कई विचारों को प्रेरित किया। आंबेडकर ने बाद में बताया कि कोलंबिया में उन्हें पहली बार सामाजिक समानता का अनुभव हुआ। उन्होंने 1930 में न्यूयॉर्क टाइम्स को बताया, “मेरे जीवन में मेरे सबसे अच्छे दोस्त कोलंबिया में मेरे कुछ सहपाठी और मेरे महान प्रोफेसर, जॉन डेवी, जेम्स शॉटवेल, एडविन सेलिगमैन और जेम्स हार्वे रॉबिन्सन थे।”
डॉ। बाबासाहेब आंबेडकर ने 3 साल पहले ही अमेरिका में 3 साल के लिए मिली छात्रवृत्ति का उपयोग करके अपना पाठ्यक्रम पूरा कर लिया था।
उन्होंने अर्थशास्त्र पर शोध करने और अन्य डिग्रियाँ प्राप्त करने के लिए लंदन जाने पर विचार किया और फरवरी 1916 में महाराज सयाजीराव गायकवाड़ को एक पत्र भेजकर छात्रवृत्ति को दो या तीन वर्षों के लिए बढ़ाने का अनुरोध किया। लेकिन वह अनुरोध अस्वीकार कर दिया गया. उसके बाद डाॅ. आंबेडकर ने प्रोफेसर सेलिगमैन के सिफ़ारिश पत्र के साथ गायकवाड़ को एक और अनुरोध पत्र भेजा, लेकिन इस बार उन्हें केवल एक वर्ष के लिए छात्रवृत्ति दी गई. इसके बाद वे मई 1916 में लंदन के लिए रवाना हो गए।
कोलंबिया विश्वविद्यालय में अपने तीन वर्षों के दौरान, आंबेडकर ने 60 पाठ्यक्रमों का अध्ययन किया : अर्थशास्त्र में 29, इतिहास में 11, समाजशास्त्र में छह, दर्शनशास्त्र में पांच, मानवविज्ञान में चार, राजनीति में तीन और प्रारंभिक फ्रेंच और जर्मन में एक-एक पाठ्यक्रम।
लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स और ग्रेज़ इन
डॉ बाबासाहेब आंबेडकर ने कोलंबिया विश्वविद्यालय से अपना पाठ्यक्रम पूरा करने के बाद लंदन में अपनी आगे की पढ़ाई करने का फैसला किया। जून 1916 में, वह लिवरपूल के बंदरगाह पर उतरे और रेल द्वारा लंदन तक अपनी यात्रा जारी रखी।
कोलंबिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सीगर ने लंदन विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र के प्रोफेसर एडविन कैनन को डॉ. आंबेडकर का परिचय पत्र दिया। प्रोफेसर सीगर ने उस परिचय पत्र में लिखा, “अर्थशास्त्र में डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रगति अर्थशास्त्र के प्रोफेसर से भी अधिक है।”
साथ ही, प्रोफेसर सेलिगमैन ने अर्थशास्त्री सिडनी वेब को भी डॉ. आंबेडकर का एक परिचय पत्र भेजा था, जिसमें आंबेडकर को लंदन के विभिन्न पुस्तकालयों में प्रवेश दिलाने को कहा गया ताकि वह अर्थशास्त्र पर लिखी विभिन्न पुस्तकों का अध्ययन कर सकें। तदनुसार, प्रोफेसर वेब ने डॉ. आंबेडकर को लंदन में इंडिया हाउस लाइब्रेरी में अध्ययन के लिए सुविधाएं प्रदान कीं।
25 वर्षीय युवा डॉ. आंबेडकर ने अर्थशास्त्र में डिग्री हासिल करने के इरादे से अक्टूबर 1916 में लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स एंड पॉलिटिकल साइंस (एलएसई) में दाखिला लिया। बाबासाहेब आंबेडकर ने कोलंबिया विश्वविद्यालय में एमए और पीएचडी की डिग्री के लिए अर्थशास्त्र का बहुत अध्ययन किया। इसलिए उन्हें लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में बीएससी किए बिना सीधे एमएससी के लिए दाखिला मिल गया।इसके लिए प्रो. कैनन ने सिफ़ारिश के साथ अनुरोध लिया था जो लंदन विश्वविद्यालय द्वारा को स्वीकार कर लिया।
अपनी अर्थशास्त्र की पढ़ाई जारी रखते हुए, आंबेडकर ने बैरिस्टर बनने के लिए 11 नवंबर 1916 को लंदन में ग्रेज़ इन में दाखिला लिया। द ऑनरेबल सोसाइटी ऑफ ग्रेज़ इन (“ग्रेज़ इन”), कोर्ट के चार इन्स में से एक, जो इंग्लैंड और वेल्स के बार में बैरिस्टरों को प्रवेश देता है। उन्होंने एमएससी डिग्री के लिए प्रॉव्हिन्शियल डीसेंट्रलायझेशन ऑफ इंपीरियल फाइनेंस (भारतीय शाही अर्थव्यवस्था का प्रांतीय विकेंद्रीकरण) पर थीसिस लिखना शुरू किया।
लेकिन उनकी एक साल की छात्रवृत्ति समाप्त होने के कारण उन्हें अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़कर भारत लौटना पड़ा। लेकिन लंदन छोड़ने से पहले, डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर ने लंदन विश्वविद्यालय से अगले चार वर्षों के दौरान, यानी अक्टूबर 1917 से सितंबर 1921 तक किसी भी समय लंदन आकर अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी करने की अनुमति ले ली थी।
मुम्बई में अर्थार्जन (जुलाई 1917 – जुलाई 1920)
जुलाई 1917 में डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर लंदन से मुंबई लौटे। बड़ौदा संस्थान के अनुबंध के तहत उन्होंने बड़ौदा में एक सौ पचास रुपये प्रति माह की नौकरी शुरू की। डॉ. आंबेडकर को महाराजा के मिलिटरी सेक्रेटरी यानि सैन्य सचिव के रूप में नियुक्त किया गया था। लेकिन चूंकि डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर अछूत थे, इसलिए उनके कार्यालय में उनके अन्य सहयोगी और कर्मचारी लगातार उनका अपमान करते थे। इस बारे में डॉ. आंबेडकर ने महाराज गायकवाड़ को बयान दिया था लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई।
बड़ौदा में जातिवाद एवं छुआछूत अपने चरम स्तर पर थी। अछूत होने के कारण डॉ. आंबेडकर को बड़ौदा में रहने की जगह नहीं दी गई। इसलिए उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ने का फैसला किया और नवंबर 1917 में बंबई लौट आये। वहां उन्होंने दो पारसी छात्रों को उनके घर पर जाकर पढ़ाने के लिए ₹100 प्रति माह की ट्यूशन ली। साथ में, उन्होंने स्टॉक्स एंड शेयर्स एडवाइजर्स नामक एक कंपनी शुरू की, जो व्यापारियों और ट्रेडिंग फर्मों को सलाह प्रदान करती है।
लेकिन जब यह समझ में आया कि यह कंपनी महार (अछूत) व्यक्ति की है तो लोगों ने सलाह लेने आना बंद कर दिया और डाॅ. आंबेडकर को अपनी कंपनी बंद करनी पड़ी। इसके बाद, डॉ. आंबेडकर को 50 रुपये प्रति माह के वेतन पर अर्थशास्त्र, बैंकिंग और वाणिज्यिक कानून पढ़ाने के लिए डावर कॉलेज ऑफ कॉमर्स, एक बिजनेस सलाहकार कॉलेज, में प्रोफेसर के रूप में नियुक्त किया गया था।
आंबेडकर की 150 रुपये की मासिक आय घरेलू खर्चों और उनकी शिक्षा पूरी करने के लिए बचत के लिए अपर्याप्त थी। उन्होंने आर्थिक प्रश्नों पर लेख लिखे और उन्हें प्रकाशन के लिए समाचार पत्रों में भेजा, जिससे उन्हें कुछ वित्तीय सहायता मिली। इसके अलावा डाॅ. आंबेडकर ने अपनी दो थीसिस कास्ट्स इन इंडिया और स्मॉल होल्डिंग्स इन इंडिया एंड देयर रेमेडीज़ को पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया। लेकिन इससे भी उन्हें इतना पैसा नहीं मिल पाता था कि वे धन संचय कर सकें।
इस दौरान वे बंबई के विभिन्न पुस्तकालयों में जाते थे और लंदन में अपनी पढ़ाई के लिए उपयोगी किताबें पढ़ते थे और उनसे नोट्स निकालते थे। इसके अलावा, सरकार ने 10 नवंबर, 1918 को डॉ. आंबेडकर को बॉम्बे के एक सरकारी कॉलेज, सिडेनहैम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में राजनीतिक अर्थशास्त्र के प्रोफेसर के रिक्त पद पर दो साल के लिए नियुक्त किया। इस काम के लिए उन्हें 450 रुपये प्रति माह वेतन मिलता था। इसी बीच 1918 में उनके बड़े भाई आनंदराव की मृत्यु हो गई और भीमराव पर अकेले ही पूरे परिवार के घरेलू खर्च की जिम्मेदारी आ गई।
अर्थशास्त्र पर डॉ. आंबेडकर के लेक्चर्स से उनके छात्र प्रभावित होते थे। वह एक छात्र-प्रेमी प्रोफेसर बन गये। उनके व्याख्यान सुनने के लिए अन्य महाविद्यालयों के छात्र भी कक्षा में आकर बैठते थे। डॉ आंबेडकर सिडेनहैम कॉलेज की लाइब्रेरी में मुख्यतः अर्थशास्त्र पर पढ़ते और नोट्स निकालते थे। डॉ आंबेडकर घर के खर्च के लिए 100 रुपये देते थे और बाकी रकम आगे की शिक्षा के लिए बचाकर रखते थे।
11 मार्च 1920 को सिडेनहैम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में प्रोफेसर का उनका कार्यकाल समाप्त हो गया। सामाजिक कार्यों के माध्यम से डाॅ. बाबासाहब आंबेडकर का परिचय कोल्हापुर संस्थान के राजर्षि शाहू महाराज से हुआ। इसलिए जब डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर आगे की शिक्षा के लिए लंदन जाने की तैयारी कर रहे थे, तो छत्रपति शाहू महाराज ने उन्हें सहायता के रूप में 1500 रुपये दिए। 5 जुलाई, 1920 को डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर ‘सिटी ऑफ़ एक्टिटर’ नाव से लंदन के लिए रवाना हुए।
लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स और ग्रेज़ इन (सितंबर 1920 – मार्च 1923)
30 सितंबर, 1920 को डॉ. आंबेडकर ने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स एंड पॉलिटिकल साइंस और ग्रेज़-इन में फिर से प्रवेश लिया। वह सुबह छह बजे लाइब्रेरी जाते थे, और वह लाइब्रेरी में प्रवेश करने वाले सबसे पहले व्यक्ति होते। पूरे दिन के लिए पर्याप्त सामग्री लेकर वह एक ही बैठक में लगातार पढ़ाई करते। वे केवल दोपहर में खाना खाने के लिए थोड़ी देर के लिए अपनी सीट से उठते थे।
शाम को लाइब्रेरी बंद होने पर वे सबसे आख़िर में निकलते थे। अपने निवास स्थान पर भी वे रात्रि भोजन के बाद आधी रात तक अध्ययन करते थे। खाना, आराम करना, सोना या मनोरंजन के लिए समय निकालना; ये सब उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं था बल्कि लगातार पढ़ाई करना उनका लक्ष्य था।
एक वर्ष के भीतर, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने अपनी थीसिस प्रोविंशियल डिसेंट्रलाइजेशन ऑफ इंपीरियल फाइनेंस इन ब्रिटिश इंडिया (ब्रिटिश भारत में साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था का प्रांतीय विकेंद्रीकरण) पूरी की और इसे एमएससी की डिग्री के लिए जून 1921 में लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में जमा किया। विश्वविद्यालय ने थीसिस को स्वीकार कर लिया और 20 जून 1921 को उन्हें अर्थशास्त्र में एम.एससी (मास्टर ऑफ साइंस) की उपाधि प्रदान की।
एक साल बाद, 28 जून 1922 को, ग्रेज़-इन इंस्टीट्यूट ने उन्हें बैरिस्टर-एट-लॉ (बार-एट-लॉ) यह कानून की सर्वोच्च डिग्री प्रदान की। इसके बाद उन्होंने डॉक्टर ऑफ साइंस (डी.एससी.) की डिग्री के लिए अक्टूबर 1922 में लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अपनी अगली अर्थशास्त्र की थीसिस ‘द प्रॉब्लम ऑफ रुपी‘ प्रस्तुत की।
इसके बाद, अर्थशास्त्र पर शोध लेखन कर और एक डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने की सोच कर बाबासाहब आंबेडकर जर्मनी चले गये और वहां बॉन विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया। कोलंबिया यूनिवर्सिटी में ही उन्होंने जर्मन भाषा सीखी थी। वह तीन महीने तक जर्मनी में रहे और अपनी थीसिस लिखने की तैयारी कर रहे थे। उसी समय, उनके लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के प्रोफ़ेसर एडविन कैनन ने उन्हें डीएससी की डिग्री के सिलसिले में लंदन आने के बारे में एक पत्र भेजा था और वह तुरंत लंदन लौट आए।
डॉ. आंबेडकर ने डी.एससी. थीसिस ‘द प्रॉब्लम ऑफ रुपी’ में भारत के ब्रिटिश साम्राज्य की नीतियों की आलोचना की थी, इसलिए मार्च 1923 में परीक्षक ने उन्हें थीसिस की ब्रिटिश हुकूमत को निचा दिखाने वाली उनकी भाषा को बदलकर फिर से लिखने के लिए कहा। इसमें तीन से चार महीने लगने वाले थे। इस बीच, जब उनके पैसे खत्म हो रहे थे, तो उन्होंने भारत जाने और वहां अपनी थीसिस पूरी करने का फैसला किया।
इस बिच, उन्होंने बॉन विश्वविद्यालय में अपनी थीसिस छोड़ दी, क्योंकि लगातार तीन महीने तक अनुपस्थित रहने पर बॉन विश्वविद्यालय से उनका दाखिला रद्द होने वाला था।
डॉ. आंबेडकर भारत के लिए नाव से लंदन से रवाना हुए और 3 अप्रैल 1923 को बंबई पहुँचे। अगस्त 1923 में डॉ. भीमराव आंबेडकर ने अपने निष्कर्षों को बदले बिना, लेखन की शैली को बदलते हुए, पुनः लिखित थीसिस को लंदन विश्वविद्यालय में भेजा। विश्वविद्यालय ने ‘द प्रॉब्लम ऑफ रुपी’ थीसिस को स्वीकार कर लिया और नवंबर 1923 में उन्हें डी.एससी. (डॉक्टर ऑफ साइंस) की उपाधि प्रदान की। आंबेडकर के इसी थीसिस के आधार पर 1935 में भारत की केंद्रीय बैंक रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया का गठन हुआ।
थीसिस ‘द प्रॉब्लम ऑफ रुपी’ दिसंबर 1923 में लंदन के पीएस किंग एंड कंपनी पब्लिशिंग हाउस द्वारा पुस्तक रूप में प्रकाशित की गई थी। उनके मार्गदर्शक अर्थशास्त्री डाॅ. कैनन ने प्रस्तावना लिखी। यह थीसिस डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने अपने माता-पिता को अर्पित किया था। अपने शोधों और पुस्तक लेखन के कारण डॉ. आंबेडकर को अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान, तथा कानून के क्षेत्र में एक विशेषज्ञ व्यक्ति के साथ-साथ एक विद्वान के रूप में भी जाना जाने लगा।
डॉ. आंबेडकर बहुत मेहनती और बेहद प्रतिभाशाली थे। इंग्लैंड में पढ़ाई के दौरान डॉ. आंबेडकर ने 8 साल का कोर्स महज 2 साल 3 महीने में सफलतापूर्वक पूरा किया। इसके लिए उन्हें हर दिन 24 घंटे में से 21-21 घंटे पढ़ाई करनी पड़ती थी।
डॉ. आंबेडकर ने कोलंबिया और लंदन में आर्थिक अनुसंधान करते हुए भारत की सामाजिक स्थिति और अपनी देशभक्ति को जीवित रखा। उनके दोनों डॉक्टरेट शोध प्रबंधों को पढ़कर, कोई भी उनमें एक देशभक्त के साथ-साथ वंचितों के अस्तित्व के लिए चिंतित अर्थशास्त्री को भी देख सकता है।
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने अपनी उच्च शिक्षा पूरी करने के बाद वकालत शुरू कर दी। वे प्रोफेसर भी बने और बाद में सामाजिक भेदभाव, छुआछूत और जातिवाद को ख़त्म करने के आंदोलन में सक्रिय हो गये। 1920 से बाबासाहब आंबेडकर सामाजिक कार्यों के साथ-साथ राजनीति में भी सक्रिय हो गये। आज हम बाबासाहेब आंबेडकर को एक ‘आदर्श छात्र‘ और सिम्बल ऑफ़ नॉलेज के रूप में मानते हैं, जिन्होंने बहुत कठिन परिस्थितियों में अध्ययन किया, आधुनिक भारत की नींव रखी तथा करोड़ो अछूतों का उद्धार किया।
डॉ. आंबेडकर के शैक्षिक सम्मान
भारतीय इतिहास में आज तक के सबसे बुद्धिमान व्यक्तियों में डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का नाम पहले नंबर पर लिया जाता है।
5 जून 1952 को, कोलंबिया विश्वविद्यालय, अमेरिका द्वारा डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर को डॉक्टर ऑफ लॉज़ (एलएलडी) की मानद उपाधि प्रदान की गई। विश्वविद्यालय द्वारा दी गई इस मानद उपाधि में उन्हें ‘भारत के संविधान के वास्तुकार, कैबिनेट के सदस्य और राज्य सभा के सदस्य, भारत के अग्रणी नागरिकों में से एक, एक महान समाज सुधारक और मानवाधिकारों के एक बहादुर समर्थक’ की संज्ञा दी गई है।
बाबासाहेब आंबेडकर को 12 जनवरी 1953 को हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टर ऑफ लिटरेचर (डी.लिट.) की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया था।
ग्रेज इन और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में बाबासाहब के कई तैलचित्र (पोर्ट्रेट) लगाए गए हैं। 2021 में, ग्रेज़ इन ने “आंबेडकर रूम” की स्थापना करके और न्यायविदों के तैलचित्रों की श्रृंखला के बीच उनके रंगीन चित्र को रखकर डॉ. बीआर आंबेडकर को सम्मानित किया है।
डॉ बाबासाहब आंबेडकर की 100वीं जयंती के अवसर पर 24 अक्टूबर 1991 को कोलंबिया विश्वविद्यालय में उनकी एक अर्ध प्रतिमा स्थापित की गई थी। इसके ढाई साल बाद, 14 अप्रैल 1994 को, लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में भी बाबासाहेब की प्रतिमा लगाई गई हैं। (विदेशों में लगी सभी आंबेडकर प्रतिमाओं की लिस्ट देखें)
2017 से, महाराष्ट्र सरकार डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के सम्मान में 7 नवंबर को ‘छात्र दिवस‘ के रूप में मनाता है। डॉ. भीमराव आंबेडकर ने 7 नवंबर 1900 को सतारा के सरकारी स्कूल मे दाख़िला लिया था। आज ये स्कूल प्रताप सिंह हाई स्कूल नाम से जाना जाता है। उस वक्त यह स्कूल पहली से चौथी तक था। अंग्रेज़ी चौथी कक्षा तक आंबेडकर इसी स्कूल में पढ़े।
2004 कोलंबिया विश्वविद्यालय की 250वीं वर्षगाँठ थी। उस अवसर पर, कोलंबिया विश्वविद्यालय ने अपने विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले हजारों छात्रों में से 100 सबसे प्रभावशाली और बुद्धिमान विद्वानों की एक सूची तैयार की। ‘कोलंबियन अहेड ऑफ देयर टाइम‘ के नाम से प्रकाशित दुनिया भर के 100 बुद्धिमान लोगों की सूची में डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का नाम पहले स्थान पर था। इस मौके पर कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने बाबासाहेब आंबेडकर का उल्लेख ‘फाउंडिंग फादर ऑफ मॉडर्न इंडिया‘ यानी ‘आधुनिक भारत के पिता’ के रूप में किया।
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सारांश
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का ज्ञान बहुत उच्च स्तर का था, जो उन्हें भारत का सबसे बुद्धिमान व्यक्ति बनाता था। आपने डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की संपूर्ण शैक्षिक यात्रा के बारे में जाना। यह लेख आपको कैसा लगा, हमें अवश्य बताएं।
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