14 अप्रैल 1991 को डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की जन्म शताब्दी (100वीं जयंती) पूरे भारत में मनाई गई। इस अवसर पर भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी एक कार्यक्रम में दिए अपने भाषण में संविधान निर्माता के बारे में विचार प्रकट किए।
अटल और आंबेडकर
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जन्म 14 अप्रैल 1891 में हुआ था। उन्हें भारत के सबसे बुद्धिमान शख्सियतों में, सबसे महान समाज सुधारकों में एवं सबसे शक्तिशाली राजनीतिज्ञों में अग्रणी माना गया है। बाबासाहब को आधुनिक भारत के निर्माता के रूप में भी जाना जाता है।
अटल बिहारी वाजपेयी तीन बार भारत के प्रधानमंत्री रहे। 1996 में पहली बार वो मात्र 13 दिनों के लिए प्रधानमंत्री रहे। वो दूसरी बार 1998 में प्रधानमंत्री बने मगर वो सरकार भी 13 महीने चली। तीसरी बार वो 1999 से 2004 तक प्रधानमंत्री रहे।
2012 में आउटलुक इंडिया द्वारा आयोजित “द ग्रेटेस्ट इंडियन” (यानी “सबसे महान भारतीय”) नामक सर्वेक्षण में डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर को पहला स्थान मिला और वह स्वतंत्र भारत के महानतम व्यक्तित्व के रूप में चुने गए, वहीं अटल बिहारी वाजपेयी को 9वां स्थान मिला था।
‘राजनीति के उस पार’ भाषण संग्रह के सौजन्य से डॉ. आंबेडकर शताब्दी समारोह के अवसर पर समरसता मंच द्वारा आयोजित कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा दिये गये भाषण का संपादित अंश यहां प्रस्तुत है।
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की स्मृति को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा …
देवियों और सज्जनों,
सबसे पहले मैं समरसता मंच को बधाई देना चाहता हूं, जिन्होंने आज के इस विशाल और भव्य कार्यक्रम का आयोजन किया है। मुझे इस कार्यक्रम में बोलने का अवसर दिया है, इसके लिए मैं मंच का आभारी हूं। मैं राजनीतिक प्राणी हूं, लेकिन यहां राजकारण करने नहीं आया हूँ। अपने महापुरुषों का स्मरण, उनके प्रति श्रद्धा का निवेदन, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को सदैव सामने रखकर भविष्य के पथ का निर्धारण, ही एक जीवित और जागृत समाज का आवश्यक लक्षण हुआ करता है।
डॉ. आंबेडकर को ‘भारतरत्न’ से अलंकृत कर हमने डॉ. आंबेडकर का उतना सम्मान नहीं किया है, जितना हमने अपनी पुरानी भूल का परिमार्जन किया है। उन्हें तो यह अलंकार पहले ही मिलना चाहिए था। केंद्रीय कक्ष में, संसद में डॉ. आंबेडकर का तैलचित्र लगाया जाए, यह मांग भी हम बहुत दिनों से कर रहे हैं, लेकिन इस पर भी ध्यान नहीं दिया गया। डॉ. आंबेडकर का विराट व्यक्तित्व और उनका कालजयी कर्तृत्व, किसी के अनुग्रह का मुंहताज नहीं है। काल के माथे पर मानो अपनी एटी रगड़कर, उन्होंने समाज परिवर्तन के रूप में, स्वतंत्र भारत के संविधान के महान शिल्पकार के रूप में कीर्ति अर्जित की है। वह समय बीतने के साथ बढ़नेवाली है।
डॉ. आंबेडकर मात्र समाजसुधारक नहीं थे, क्रांतिकारक थे। हिंदू समाज में मूलगामी क्रांति करना चाहते थे और यह दायित्व मानो, नियति ने उन्हें जन्म के साथ ही सौंप दिया था। यदि कोई व्यक्ति बेड़ियों के साथ, हथकड़ियों के साथ पैदा हो, तो उसका पहला काम होगा हथकड़ियों को तोड़ना। अगर वह व्यक्ति किसी बड़े जेल में बंद है, तो उस जेल को तोड़ने के लिए भी उसे अपनी हथकड़ियों को तोड़ना आवश्यक होगा, डॉ. आंबेडकर ने यही किया। समाज में कितना भेदभाव था, जन्म और जाति के आधार पर व्यक्ति का मूल्यांकन करके, उसको तिरस्कृत करने की भावना, किस तरह धुन के रूप में समाज को खाए जा रही थी।
डॉ. आंबेडकर इसके भुक्तभोगी थे। उनका चपरासी उन्हें कागद देता था तो तश्तरी में रखकर देता था, हाथ से नहीं देता था। पता नहीं किस अभिशाप ने हमारे समाज को ग्रस्त लिया है। लेकिन इतने भेदभाव के बावजूद उनका व्यक्तित्व हिमाचल की ऊंचाई को छूने में किसी तरह से कम नहीं पड़ा। उन्होंने हृदय में कटुता पैदा नहीं होने दी। एक आग जरूर उनके दिल में जलती थी, फिर भी उस आग को उन्होंने नियंत्रण में रखा था। दलित क्रांति को उन्होंने कभी हिंसा या टकराव के रास्ते पर नहीं जाने दिया।
अभी जब संसद के केंद्रीय कक्ष में डॉ. आंबेडकर के तैल चित्र का अनावरण हो रहा था, तब दक्षिण आफ्रिका के नेता नेल्सन मंडेला ने कहा था, “हम डॉ. आंबेडकर के जीवन और कार्य से प्रेरणा लेकर अपना संघर्ष भी उन्हीं आधारों पर चलाएंगे, जिन आधारों पर डॉ. आंबेडकर ने भारत में समाज परिवर्तन का प्रयत्न किया और सफलता पाई।”
यह ठीक कहा गया कि, डॉ. आंबेडकर केवल दलितों के नेता नहीं थे। वह दलित के यहां जन्मे, वह दलितों के लिए जिये, वह दलितों के लिए जूझे, और जीवन के अंतिम क्षण तक दलितों के हितों की चिंता करते रहे। मगर इसके बावजूद वह राष्ट्र के नेता थे, राष्ट्रीय नेता थे, हम सबके नेता थे। मैं तो एक कदम आगे जाकर कहूँगा कि वह मानवता के मुक्ति के दाता थे। उनकी तुलना हो सकती है मार्टिन लूथर किंग के काम से। उन्होंने सामाजिक परिवर्तन का जो बीड़ा उठाया था, उस कार्य को कठिनाइयों के बावजूद उन्होंने आगे बढ़ाया।
उन्होंने दलितों को आत्म उद्धार का संदेश दिया। ‘आत्मदीपो भवः’। भगवान बुद्ध का कहना था अपने दीप आप बनो। कोई और चिराग दिखाए, उस चिराग की रोशनी में टटोलते – टटोलते रास्ता ढूंढो इसकी आवश्यकता नहीं है। अपना चिराग आप बनो। और उसके प्रकाश में, अपने प्रकाश में, अपने पथ का निर्धारण करो। डॉ. आंबेडकर भारतीय संविधान के शिल्पकार के रूप में याद किए जाएंगे यह अभी मैंने कहा। बहुत लोगों को यह पता नहीं होगा कि जो (मसौदा) समिति संविधान का निर्माण कर रही थी, उसमें अनेक सदस्य थे, मगर उपसमिति की बैठक में सदस्य आते नहीं थे। लेकिन डॉ. आंबेडकर ने अपने बल पर, अपनी प्रतिभा से, अपनी लेखनी से, भारत के सारे संविधान को लिख दिया। वह संविधान हमारी आधुनिक स्मृति है। अब कोई पुरानी स्मृति नहीं चलेगी। इस देश में स्मृतियों बदलती रही हैं। हमने हमेशा युगधर्म का विचार किया है।
हमने कालचक्र के साथ चलने की कोशिश की है। यह ठीक ऐह कि जीवन के जो स्थायी मूल्य हैं – उदाहरण के लिए प्रज्ञा है, करुणा है – डॉ. आंबेडकर को भगवान बुद्ध की करुणा ने बहुत आकृष्ट किया था। आज तो ऐसा लगता है समाज करुणा विहिन हो गया है। समाज में असहिष्णुता बढ़ रही है। दुःखी के लिए, दलितों के लिए, शोषितों के लिए कानूनी कदम उठाए जाएं, उनका शोषण समाप्त करने के लिए यह ठीक ऐह, लेकिन कानून पर अमल कौन करेगा?
अगर वह हृदयहीन नौकरशाही के हाथ पड़ जाएगा, तो वह जिसके कल्याण के लिए बनाया है उसको लाभ नहीं पहुंचा सकेगा। हृदय में करुणा चाहिए। समता आवश्यक है लेकिन समता के साथ समरसता भी आवश्यक है। समता के अंतर्गत हर खानेवाले को दो रोटियों का प्रबंध किया जा सकता है। दो रोटियाँ, सबको बराबर रोटी मिलेगी। समता है दो से कम नहीं मिलेंगी, दो से ज्यादा नहीं मिलेगी। रोटी खाओ और अगर कोई चावल खानेवाला हो तो? और किसी के पेट में दर्द है, वह रोटी नहीं खा सकता, उसे खिचड़ी चाहिए, तब क्या होगा? समता है खाना हो तो खाओ, मगर खानी होगी रोटी।
बहनों और भाइयों! आपको सुनकर आश्चर्य होगा, हम आजकल राम और रोटी की बात करते हैं, जिन प्रदेशों में चावल खिलाया जाता है, वहां के लोगों को हमारे खिलाफ भड़काया जा रहा है। अगर दिल्ली में इनका शासन आ गया तो यहां चावल की सप्लाई बंद कर देंगे और रोटी खाने के लिए मजबूर कर देंगे। राजनीति किस हद तक जा सकती है? हम इस तरह की राजनीति नहीं कर सकते। सबके साथ समानता का व्यवहार आवश्यक है और इसका कारण केवल भौतिक नहीं है। सबमें एक ही परम तत्त्व विराजमान है।
डॉ. आंबेडकर ने भारतीय संविधान के अंतर्गत हमें समान अधिकार का विश्वास दिलाया, मताधिकार दिया, हर एक के वोट की कीमत बराबर है, लेकिन केवल मताधिकार नहीं है, लोकतंत्र के कुछ मूल्य भी हैं। लेकिन बराबर वोट का आधार क्या है? प्रकृति में भिन्नता है, प्रकृति में विषमता है, शारीरिक शक्ति की दृष्टि से, बौद्धिक क्षमता की दृष्टि से कोई धनी है, कोई निर्धन है। मगर सब का वोट बराबर है। क्योंकि सबमें एकही आत्मा है। लोकतंत्र का आधार भी आध्यात्मिक है।
एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के अधिकारों का सम्मान क्यों करे? दूसरे व्यक्ति के जीवित रहने के अधिकार की रक्षा क्यों करे? केवल शरीर के कारण नहीं – डॉ. आंबेडकर ने हमें जो संविधान दिया है, वह हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि है, वह हमारी सबसे बड़ी धरोहर है। संविधान में संशोधन की गुंजाईश है, मगर संविधान के बुनियादी ढांचे के साथ किसी को खेलने की इजाजत नहीं दी जा सकती, उसको विकृत करने की किसी को अनुमति नहीं दी जा सकती। १९७५-७६ में जो कुछ हुआ वह हमें भूलना नहीं चाहिए। डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा में इसी तरह खतरों के विरुद्ध चेतावनी दी थी। उन्होंने एक शक्तिशाली केंद्र बनाया था, मगर उन्होंने यह भी कहा था कि केंद्र को जो अधिकार दिए जा रहे है उनका दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।
आज देश के सामने विघटन का जो संकट खड़ा है, वह इसलिए नहीं है कि संविधान में केंद्र शक्तिशाली है। वह इसलिए है कि केंद्र में बैठे हुए लोगों ने न्याय के आधार पर चलने से इन्कार कर दिया है। उन्होंने संविधान का दुरुपयोग किया, चुनी हुई राज्य सरकारों को अकारण बरखास्त करना, और हर मामले में दलगत राजनीति को छूट देना। डॉ. आंबेडकर ने कहा था धारा ३५६ का बहुत कम उपयोग होगा, बल्कि होगा ही नहीं। डॉ. आंबेडकर ने इस बात के खिलाफ भी चेतावनी दी थी, कि जो आजादी हमें संघर्ष के बाद मिली है उसको हम कहीं गलती से गवां न दें। जाति प्रथा के खिलाफ, जन्म और जाति के भेदभाव के विरुद्ध, इसीलिए उन्हें सबसे बड़ी शिकायत थी कि इतना प्राचीन देश, इतना महान देश, संसार के सामने संस्कृति का आदर्श रखनेवाला देश मुट्ठीभर गद्दारों से परास्त कैसे हो गया?
बहनों और भाइयों हम सब जानते हैं, किसी विदेशी ने हमें परास्त नहीं किया, हम आपस की फूट का शिकार होकर अपने ही हाथों से, अपनी तलवार लेकर, अपने ही देश को जीतकर औरों को समर्पित करने के गुनहगार बने, दोषी बने। पर जो स्वाधीनता मिली है उसे हमें अमर बनाना है। व्यक्ति की स्वतंत्रता पर आधारित लोकतंत्र को हमें अखंड रखना है।? डॉ. आंबेडकर भारतीय संस्कृति की एकता के बड़े अटूट समर्थक थे। देश में अनेक भाषाएं हैं। अनेक उपासना पद्धतियाँ हैं। मगर देश की मिट्टी से निकली हुई संस्कृति एक है। आप उपासना पद्धति बदल सकते हैं, संस्कृति नहीं बदल सकते। और यह संस्कृति केवल भारत तक सीमित नहीं है, इस संस्कृति का संदेश लेकर, हमारे उपदेशक दुनिया के अनेक देशों में गए और पूरे दक्षिण एशिया में फैल गए।
मुझे याद है कि डॉ. आंबेडकर ने कहा था, भारत को एक कल्चरल कॉमन वेल्थ बनाना चाहिए। दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में जहाँ-जहाँ भारतीय संस्कृति गई है, जहाँ जहाँ भगवान बुद्ध का संदेश गया है, जहाँ-जहाँ रामायण गई है, उन सब देशों को जोड़ना चाहिए। एक सांस्कृतिक संगठन के अंतर्गत उन्हें लाना चाहिए। किसी सरकार ने इस पर काम नहीं किया। अगर आपने, और भारत के मतदाताओं ने मौका दिया, तो डॉ. आंबेडकर के इस सपने को साकार करने का प्रयत्न करेंगे।
डॉ. आंबेडकर नेहरू मंत्रिमंडल के सदस्य थे, लेकिन जब नेहरू सरकार ने तिब्बत पर चीन की प्रभुता को स्वीकार किया, तो डॉ. आंबेडकर अपने को रोक नहीं सके। उन्होंने तिब्बत पर चीन के आक्रमण का विरोध किया। भारत सरकार की नीति से अपना मतभेद प्रकट किया। वह चाहते थे कि हिंदू समाज के आचरण का भी एक कोड बने, आधुनिक कोड बने। विवाह के, विवाह विच्छेदन के, उत्तराधिकार के ऐसे नियम बनें जो युगधर्म से मेल खाते हों, लेकिन उनकी इच्छा पूरी नहीं हुई। हिंदू समाज में सुधार करने की अजीब क्षमता है।
मगर दुर्भाग्य से सुधार धीरे-धीरे होता है। और समाज में सुधार होता ही नहीं। मगर हम अपने समाज में होनेवाले सुधारों की धीमी गति पर संतोष नहीं कर सकते। जब हवाई जहाज से उड़ने का वक्त है, तब हम बैलगाड़ी में बैठकर जा रहे हैं। ठीक है कि हम जा रहे हैं, यह ठीक है कि हम एक जगह पर खड़े नहीं है लेकिन दौड़ मची है। अगर बीच में राजनीति न लाई जाए और वोटों पर नजर रखकर फैसले न किए जाएं, तो समाज का मानस तयार है दूरगामी परिवर्तन के लिए। उस दिन दिल्ली में साधु महात्माओं का एकत्रीकरण देखकर और उनके मुंह से यह सुनकर कि अब रैली के बाद अपने-अपने क्षेत्रों में जाइए और पहला काम यह करिए कि जहाँ दलित बंधू रहते हैं, उन के मोहल्लों में जाइए और उनको समता का संदेश दीजिए और उनके साथ समता का व्यवहार करिए।
डॉ. आंबेडकर ने एक बहिष्कृत भारत की चर्चा की थी। हम तो इंडिया और भारत की चर्चा करते हैं कि इस देश में दो देश है एक इंडिया है, एक भारत है। कई साल पहले डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि एक बहिष्कृत भारत भी है। जो गांव के बाहर रहता है, जो विपन्न अवस्था में है, जो शताब्दियों से मानो गुलामी जैसा जीवन व्यतीत कर रहा है। सचमुच में उनके उद्धार की जरूरत नहीं है। जो अपने को तिरस्कृति समझते हैं, उनके उद्धार की जरूरत हैं।
अस्पृश्यता तो खतम होगी, होनी भी चाहिए। लेकिन अस्पृश्यता खत्म करने के लिए केवल कानून काफी नहीं है, जो अपने को अस्पृश्य समझते हैं, उनके मन में जो अस्पृश्यता बैठी है, जब तक उसका निराकरण नहीं होगा, तब तक अस्पृश्यता का निर्मूलन नहीं होगा। अब तो राजनीतिक क्षेत्र में भी अस्पृश्यता आ रही है। हे भाजपावाले आम्हाला चालणार नाहीत. काय झालं, काय झालं तुम्हाला? (ये बीजेपी वाले हमें नहीं चलेंगे। क्या हुआ, क्या हुआ तुम्हें?) नहीं–नहीं हम इनको छुएंगे नहीं। क्यों, आप बड़े पवित्र हैं? हमें दलित का दर्जा क्यों देते हैं? हम स्वीकार करते हैं। क्योंकि यह युग दलितों का है। दलित क्रांति की आवश्यकता है। मगर यह सोचने का क्या तरीका है? चिंतन की प्रक्रिया को बदलना पड़ेगा।
बड़ी प्रसन्नता की बात है कि सारे देश में डॉ. आंबेडकर की जन्म शताब्दि का समारोह सबने मिलकर मनाया है। बड़े अच्छे ढंग से मनाया है। जब समारोह का आयोजन किया गया तब चुनाव आ जाएंगे, इस बात की कोई संभावना नहीं थी, कि चुनाव आ जाएंगे। परंतु अब चुनाव आ गया तो राजनीति में नेता हर मौके का लाभ उठाना चाहते हैं, इसका भी लाभ उठाने का प्रयत्न करें तो कोई ताज्जुब की बात नहीं है। मगर लाभ उठाना नहीं चाहिए।
डॉ. आंबेडकर ने काम किया है वह पीढ़ियों के लिए है। भारत उनके ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकता। हम तो चाहते हैं, उन्होंने जो मशाल की रोशनी में देश के जीवन में जो कुछ अशिव है, असुंदर है, असत्य है- उसको बेनकाब करे। आवश्यकता पड़े तो उस मशाल की आग से उस अशिद को, असत्य को, असुंदर को जलाकर भस्म कर दे और जो शिव है, सुंदर है, सत्य है उसको प्रतिष्ठापित करने में सहायक हो। इन शब्दों के साथ डॉ. आंबेडकर की स्मृति को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए और अपने सौभाग्य पर हर्ष प्रकट करता हूँ। हमने उन्हें हमारी आंखों से देखा, काम करते हुए देखा, हम उनके प्रति अपने ऋण से उऋण हो सकें इस बात के लिए भगवान हमें शक्ति दे। यही प्रार्थना है। नमस्कार! धन्यवाद!
– अटल बिहारी वाजपेयी
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