भिक्षु पूर्ण भगवान बुद्ध के समकालीन और उनके समर्पित शिष्य थे। वह निडर और दयालु थे। पूर्ण को महाराष्ट्र का प्रथम बौद्ध भिक्षु माना जाता है। भगवान बुद्ध के जीवन काल में ही बौद्ध धर्म महाराष्ट्र में पहुंचा। महाराष्ट्र में केवल भगवान बुद्ध का धर्म ही नहीं गया अपितु स्वयं भगवान भी पधारे थे।
भिक्षु पूर्ण निर्भरता एवं दयालुता से विख्यात है। उन्हें महाराष्ट्र के प्रथम बौद्ध भिक्षु के रूप में भी जाना जाता है। आज हम इस महान भिक्खु के बारे में जानने जा रहे हैं।
भिक्षु पूर्ण का जीवन
भिक्षु पूर्ण (ई. पू. 498) बुद्ध के एक समर्पित शिष्य थे। एक दिन, जब वह ध्यान में बैठे थे, तो उन्हें श्रोणप्रांत के जंगली लोगों के बीच जाकर गुरु का संदेश फैलाने की इच्छा हुई। यह योजना उनके कई साथी भिक्षुओं को बेतुकी लगी। परन्तु पूर्ण तो आस्थावान व्यक्ति थे। वह निडर थे। उनका हृदय अंधकार के घर में रहने वाले सभी लोगों के लिए प्रेम और करुणा से भरा था।
भगवान बुद्ध के जीवन काल में ही बौद्ध धर्म महाराष्ट्र में पहुंचा। पश्चिमी छोर पर समुद्र के किनारे स्थित सुप्पारक बंदरगाह भी अछूता नहीं रह सका । यह पूर्ण भिक्षु के जीवन वृत्तांत से भलिभांति प्रकट होता है। महाराष्ट्र में केवल भगवान का धर्म ही नहीं गया अपितु स्वयं भगवान भी पधारे थे। इसी कारण यह कहा जा सकता है कि महाराष्ट्र को भगवान बुद्ध के पाद स्पर्श का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
आयुष्मान पूर्ण का जन्म सुनापरंत या महाराष्ट्र के अन्तर्गत सुप्पारक में हुआ था। उनके पिता साधारण श्रेणी के व्यापारी थे। उनके पिता दूर दूर तक व्यापारार्थ जाया करते थे। पूर्ण को भी पारंपारिक व्यवसाय करना पड़ा। वे एक बार व्यापारियों के बड़े सार्थवाह के साथ श्रावस्ती गये। उस समय तथागत श्रावस्ती में ही विराजमान थे। पूर्ण को उन्हें देखने और धर्मोपदेश सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कई बार के उपदेश सुनने के पश्चात पूर्ण को गृहस्थ जीवन से वैराग्य हुआ। उन्होंने भगवान से प्रव्रज्या की याचना की । भगवान ने उन्हें दीक्षा दी।
प्रव्रज्या के उपरांत वे वहीं भगवान के पास कुछ दिन रहे। अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक रहने के कारण वे सब के प्रिय भाजन हुये। अपना शेष जीवन वे वहीं बिताना नहीं चाहते थे। अपनी मातृभूमि सुप्पारक लौट कर उसे तथागत के धर्म से परिचित कराना चाहते थे।
पूर्ण और बुद्ध का संवाद
अनाथपिण्डिक के जेतवनाराम श्रावस्ती में रहते अब भिक्षु पूर्ण को काफी समय बीत चला था। एक दिन भगवान बुद्ध से उपदेश सुनने की कामना से वे शाम को उनके पास गये। भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गये । उन्होंने शास्ता से प्रार्थना की।
“भन्ते ! अच्छा हो, यदि भगवान मुझे संक्षिप्त उपदेश दें। मैं भगवान का उपदेश सुन एकांत में अप्रमादी हो विहरूंगा।”‘
“तो पूर्ण सुनो। अच्छी प्रकार से ध्यान में रखो” कह भगवान ने इंद्रिय और उनके विषयों के संबंध में संक्षिप्त उपदेश दिया। उपदेश दे भगवान ने पूर्ण से पूछा,
“पूर्ण ! मेरा संक्षिप्त उपदेश सुनकर किस जनपद में चारिका करोगे ?”
“भन्ते । भगवान का उपदेश सुन मे यहाँ से सुनापरंत जनपद में जादूंगा ।”
भगवान ने कहा, “पूर्ण ! सुनापरंत के लोग चण्ड़, कठोर भाषी होते हैं। पूर्ण यदि वे तुम्हें गाली देंगे तो तुम्हे कैसा लगेगा ?”
” भन्ते, यदि सुनांपरंत के लोग मुझे गाली देंगे तो मैं समझूंगा कि वे लोग बड़े बच्छे है, क्यों कि उन्होंने मुझे केवल गाली ही दी है. हाथों से प्रहार नहीं किया । “
“पूर्ण ! यदि सुनापरंत के लोग हाथों से प्रहार करेंगे तो तुम्हें कैसा लगेगा ?’
“भन्ते! मैं सोचूंगा कि सुनापरंत के लोग बड़े अच्छे हैं, उन्होंने मुझे केवल हाथों से हो ताड़न किया है। ढ़ेले से नहीं मारा है। मैं उनका आभार मानूंगा ।”
“पूर्ण ! यदि वे तुम्हें ढ़ेले से मारेंगे तो तुम क्या करोंगे ?”
“भन्ते! यदि वे मुझे ढ़ेले से मारेंगे तो मैं इसलिये उनका आभार मानूंगा कि उन्होंने मुझे डंड़े से नहीं पीटा है।”
“पूर्ण ! यदि वे तुम्हें डंड़े से पीटेंगे तो तुम क्या करोगे ?”
“भन्ते ! यदि सुनापरांत वासी मुझे डंड़े से पीटेंगे तो सोचूंगा कि वे लोग बड़े सभ्य है क्योंकि उन्होंने मुझे शस्त्र से नहीं मारा। इसलिये में उनकी प्रशंसा करूंगा ।”
“पूर्ण यदि उन्होंने शस्त्र से प्रहार किया तो तुम्हे कैसा लगेगा ? “
“भन्ते ! मैं समझूंगा कि वे लोक अच्छे हैं, बहुत अच्छे हैं। उन्होंने मुझे तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा जान से नहीं मारा इसलिये में उनका आभार मानूंगा ।”
” पूर्ण । यदि सुनापरंत के लोक तुम्हे तीक्ष्ण शस्त्र से जान से मार डालेंगे तो तुम क्या करोगे ?”
” भन्ते ! कुछ लोग जीवन से तंग आकर आत्महत्या के लिये शस्त्र खोजते हैं। भन्ते ! मैं समझूंगा कि सुनापरंत के लोग बड़े अच्छे हैं जिन्होंने मुझे शस्त्र द्वारा जान से मार डाला और मुझे शस्त्र की खोज नहीं करनी पड़ी।”
“साधु ! साधु !! पूर्ण तुम सुनापरंत में सुखपूर्वक विहार करने में समर्थ होंगे।” पूर्ण के उत्तर से भगवान गदगद हुये। दूर प्रांतो में धर्म प्रचार के लिये भगवान को पूर्ण जैसे ही तरुण भिक्षुओं की जरुरत थी। भगवान का आशीर्वाद लेकर आयुष्यान पूर्ण सुनापरंत के लिये रवाना हुये ।
महाराष्ट्र में धम्म प्रचार
सुनापरंत में भिक्षु पूर्ण कुछ दिन अम्बहत्य पर्वत पर रहे। उनका छोटा भाई चूल-पूर्ण उसी पर्वत के समीप व्यापारियों के गांव में रहता था। उनके वहां होने का चूल-पूर्ण को पता चलने पर वे वहां से चले गये’।
पूर्ण अपने परिचितो या रिश्तेदारों के बीच रहना पसंत नहीं करते थे । इसीलिये भाई को ज्ञात होने पर उन्होंने अपना स्थान छोड़ दिया था। वे वहां से मुदुगिरि विहार चले गये। पूर्ण उस विहार में कुछ दिन विहरते रहे।
कहा जाता है कि वहां एक चक्रमण भूमि थी जो चुम्बकीय पत्थर की दीवार से घिरी हुई थी। उस भूमि पर कोई भी नहीं चल सकता था। विहार समुंदर के किनारे होने के कारण सागर की लहरें टकराकर भयानक शब्द करती जिस से पूर्ण के चित्त की शांति भंग हो रही थी। उन्होंने अपने योगाभ्यास से समुद्र को चुप कराया ।
समुद्रगिरि से पूर्ण मातुलगिरि गये वहां भी पक्षियों की आवाज के कारण उन्हें शांति नहीं मिली ।
वे अंत में बकुलफ ग्राम में जा रहने लगे। वहां रहते समय उनका भाई चूल-पूर्ण पांच सौ व्यापारियों के साथ समुद्री यात्रा पर जा रहा था। जाने के पूर्व वह आयुष्मान पूर्ण के पास गया। उनसे उसने त्रिशरण ग्रहण किया और यात्रा की कुशलता की प्रार्थना की।
उनका जहाज एक ऐसे द्वीप में जा पहुंचा जहां लाल चंदन के वन थे । उन्होंने लाल चंदन के काष्ट से जहाज भरा। इस से द्वीप का यक्ष कुपित हुआ । उसने समुद्र में तुफान पैदा किया। जहाज गोते खाने लगा। हर व्यापारी ने अपने अपने इष्ट देवता की आराधना की। पूण ने भाई की रक्षा के लिये यक्ष का दमन कर समुद्र का तूफान शान्त कराया। सारे व्यापारी सुरक्षित लौट आये ।
व्यापारियों ने आयुष्मान पूर्ण को बहुत सारे चंदन के लट्ठ दान दिये । उन्हीं चंदन-काष्टों से पूर्ण ने भगवान के लिये कुटी बनवाई ।
कहा जाता है कि पूर्ण ने निमंत्रण के रूप में भगवान के पास एक फूल भेजा था। निमंत्रण स्वीकार कर कई भिक्षुओं को लेकर भगवान वहां पहुंचे थे और रात भर पूर्ण के पास रहे तथा सबेरा होते होते लौट गये। लौटते समय भगवान एक स्थल पर नर्मदा नदी के किनारे रुके जहां नागराज ने उनका बड़ा सत्कार किया था।
सुनापरंत में भगवान का संदेश ले जाने वाले पूर्ण प्रथम भिक्षु थे। उन्होंने ही महाराष्ट्र में बौद्ध धर्म की नीव डाली। वहां उन्होंने कई स्त्री पुरुषों को दीक्षा दी। कहा जाता है कि उन्होंने पांच सौ व्यक्तियों को बौद्ध बनाया था।’
यद्यपि पूर्ण पुनः भगवान के पास लौट कर नहीं जा सके तो भी उनके देहांत का समाचार भगवान के पास श्रावस्ती पहुंचा था। सुनापरांत के पूर्ण नाम से वे भिक्षुओं में प्रसिद्ध थे। भगवान द्वारा पूछे गये प्रश्नों के कारण वे अधिक प्रख्यात हुये थे ।
पूर्ण में मिशनरी स्प्रिट थी, उत्साह था, आत्म शक्ति थी और साहस था। इसी कारण वे अकेले ही विचरते रहे।
उनके देहांत का समाचार सुन बहुत से भिक्षु भगवान के पास गये । उन्होंने भगवान से पूछा,
“भन्ते, पूर्ण कुल पुत्र भगवान से संक्षिप्त उपदेश सुन दिवंगत हुआ । उसकी क्या गति हुई होगी ? उसका कौनसा जन्म होगा ?”
“भिक्षुओ ! पूर्ण कुल पुत्र पण्डित था। उसने धर्म को जान लिया था । भिक्षुओ पूर्ण कुल पुत्र परिनिर्वाण को प्राप्त हुआ ।””
सन्दर्भ
१. पुण्णेवादसुत-मज्झिमनिकाय ।
२. वही ।
३. मज्झिमनिकाय अट्ठकथा २. १० १५ ।
४. मज्झिमनिकाय अट्ठकथा २. १०१५ ।
५. खुद्दकनिकाय अट्ठकथा १४९ ।
६. पुण्णेवादसुत्त-मज्झिमनिकाय ।
७. वही ।
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